Best 110+ Allama Iqbal Shayari | अल्लामा इकबाल की शेर शायरी (2024)
स्वागत करते हैं आपका हमारी वेबसाइट पर। उम्मीद करते हैं आप सब ठीक होंगे दोस्तों आज के इस लेख में हम आपको “Allama Iqbal Shayari” प्रस्तुत करेंगे। अगर आप अल्लामा इकबाल के शेर शायरी ढूंढ रहे हैं तो आप बिल्कुल सही जगह आए हैं आज हम अल्लामा इकबाल साहब के सबसे लोकप्रिय दिल को छू जाने वाली शेर शायरी आपके लिए लेकर आए हैं। आप लेख को अंत तक ध्यान से पढ़े ताकि Allama Iqbal Shayari आपको अच्छे से समझ आ सके।
अल्लामा इकबाल साहब लोगों के दिलों की धड़कन है। पूरी दुनिया में एक अलग ही पहचान रखने वाली शख्सियत डॉक्टर अल्लामा इकबाल साहब की है। उन्होंने अपने शेर और शायरी से लोगों के दिल जीते हैं। अल्लामा इकबाल साहब एक बहुत बड़े कवि, लेखक, गायकार और राजनीतिज्ञ थे। अगर आप अल्लामा इकबाल के शेर शायरी पढ़ना चाहते हैं तो हमारे साथ अंत तक बने रहे हम आपको Allama Iqbal Shayari प्रस्तुत करेंगे।
दोस्तों आपको बता दें कि पिछले आर्टिकल में हमने फेमस शायरों की मशहूर शायरी प्रस्तुत की है। अगर आप भी दिल को छू जाने वाली मशहूर शायरी पढ़ना चाहते हैं तो हमने नीचे लिंक दे रखी है जिस पर क्लिक करके आप आसानी के साथ पढ़ सकते हैं। चलिए दोस्तों बिना देरी किए आपको Allama Iqbal Shayari पेश करते हैं।
फेमस शायरों की मशहूर शेर शायरी (2023)
ढूंढता रहता हूँ ऐ ‘इक़बाल’ अपने आप को,
आप ही गोया मुसाफिर, आप ही मंज़िल हूँ मैं…।
तिरे इश्क़ की ”इंतिहा” चाहता हूँ मिरी ”सादगी” देख क्या चाहता हूँ,
ये जन्नत “मुबारक” रहे ज़ाहिदों को कि मैं आप का सामना चाहता हूँ..।
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं,
तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतज़ार देख..।
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा,
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा..।
इश्क़ भी हो ”हिजाब” में हुस्न भी हो हिजाब में,
या तो ख़ुद ”आश्कार” हो या मुझे आश्कार कर…।
क्या हुआ जो तेरे माथे पे है शब्दों के निशान,
कोई ऐसा सजदा भी कर जो जमीं पर यह निसान छोड़ जाए…।
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने,
मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका…।
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है..।
दियार-इ-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर,
नया ज़माना नई सुबह-ओ-शाम पैदा कर…।
जिस खेत से ”दहक़ाँ” को मयस्सर नहीं रोज़ी,
उस खेत के हर ”ख़ोशा-ए-गंदुम” को जला कर रख दो…।
अपने किरदार पे डाल के पर्दा इकबाल,
हर शख्स कह रहा है जमाना खराब है…।
दिल से जो बात-निकलती है वोअसर रखती है,
लेकिन नहीं ”ताक़त-ए-परवाज़” मगर रखती है…।
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ,
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ…।
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-इ-ज़िंदगी,
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन, अपना तो बन…।
यक़ीं मोहकम अमल ”पैहम” मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम,
“जिहाद-ए-ज़िंदगानी” में हैं ये ”मर्दों” की शमशीरें…।
नशा पिला कर गिराना तो सब को आता है,
मज़ा तो जब है के गिरतों को थाम ले साक़ी…।
फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का,
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है…।
मेरे बचपन के दिन भी क्या ख़ूब थे इक़बाल,
बेनमाज़ी भी था और बेगुनाह भी…।
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं,
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं…।
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दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब,
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो…।
नहीं तेरा नशेमनं कसर्-ए-शुलतानी के गुम्बद पर,
तू शाहीन बसेर कर पहाडों की चट्टानो में…।
रहमत है ”दिल” के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल,
लेकिन कभी कभी तो इसे ”तन्हा” भी छोड़ दे…।
साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना,
जब सर को झुकाता हूं शीशा नजर आता है…।
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी,
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन…।
महीने-वस्ल के घड़ियों की ‘सूरत’ उड़ते जाते हैं,
मगर घड़ियाँ जुदाई की गुज़रती हैं महीनों में…।
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल,
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे…।
तेरे आज़ाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया,
यहाँ मरने की पाबंदी वहाँ जीने की पाबंदी…।
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है,
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है…।
ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में,
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा…।
की मोहम्मद से वफ़ा तू ने तो हम तेरे हैं,
ये जहाँ चीज़ है क्या “लौह-ओ-क़लम” तेरे हैं…।
मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहिए,
कि दाना खाक में मिलकर, गुले-गुलजार होता है…।
हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी,
ख़ुदा करे कि जवानी तिरी रहे बे-दाग़…।
सुबह को बाग़ में शबनम पड़ती है फ़क़त इसलिए,
के पत्ता पत्ता करे तेरा ज़िक्र बा वजू हो कर…।
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक,
कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक…।
गुलामी में ना काम आती है शमशीरें ना तकबीरे,
जो हो ज़ौक-ऐ-यक़ीं पैदा तो कट जाती है जंजीरें…।
फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का,
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है…।
सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर,
मुझ को न ऐसे प्यार से देखा करे कोई…।
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं,
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए…।
ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी,
जिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही…।
जफ़ा जो इश्क़ में होती है वो जफ़ा ही नहीं,
सितम न हो तो मोहब्बत में कुछ मज़ा ही नहीं…।
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परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का,
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा…।
बातिल से दबने वाले ऐ आसमां नहीं हम,
सौ बार कर चुका है तू इम्तिहां हमारा…।
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदी मुसलमानों,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में…।
हुई ना आम जहां में कभी हुकूमत-ए-इश्क़,
सबब ये है कि मोहब्बत ज़माना साज नहीं…।
मजनूं ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे,
नज़्जारो की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे…।
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो,
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो…।
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी,
ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है…।
हम जब निभाते है तो इस तरह ”निभाते” है,
सांस लेना तो छोड़ सकते है पर दमन यार नहीं…।
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में,
नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में…।
न रख उम्मीद-ए -वफ़ा किसी परिंदे से “इक़बाल,
जब पर निकल आते हैं तो अपना ही आशियाना भूल जाते हैं…।
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा…।
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जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में,
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते…।
मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा…।
बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम,
सौ बार कर चुका है तू इम्तिहाँ हमारा…।
खुदा के ‘बन्दे’ तो हैं हजारों बनो में फिरते हैं मारे-मारे,
मैं उसका ”बन्दा” बनूंगा जिसको खुदा के बन्दों से प्यार होगा…।
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ,
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर…।
इक़रार ऐ मुहब्बत ऐहदे ऐ-वफ़ा सब झूठी सच्ची बातें हैं इक़बाल,
हर शख्स खुदी की “मस्ती” में बस अपने खातिर जीता है…।
वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है,
तिरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में….।
है ख़वाजा के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद…।
बे-ख़तर ”कूद” पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़,,
अक़्ल है महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम अभी…।
‘इक़बाल’ कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में,
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा…।
निष्कर्ष
आज के इस लेख में हमने आपको Allama Iqbal Shayari प्रस्तुति है। दिल को छू जाने वाली मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के शेर शायरी आपके लिए पेश की है। दोस्तों उम्मीद करते हैं आपको Allama Iqbal Shayari बेहद पसंद आई होंगी अगर आपको Allama Iqbal Shayari अच्छी लगी हो तो इस आर्टिकल को अपने दोस्तों तक आगे जरुर शेयर करें और रोजाना ऐसे ही दिल को छू जाने वाली शायरी पढ़ने के लिए जुड़े रहे हमारी वेबसाइट के साथ धन्यवाद!